Saturday, December 17, 2016

दूसरे कविता संग्रह ...ऐ-री-सखी की एक कविता ...............


इस लंबी सी ख़ामोशी के बाद....


ऐ-री-सखी ,
बता ना मुझे कि
एक लंबी सी खामोशी के बाद
यूँ तेज़ तूफ़ान का आना
और मेरा यूँ चेतन विहीन हो जाना
और सोचना कि ,
क्यों हर तूफ़ान अपने बाद
बर्बादी का मंज़र छोड़ जाता है
दरख्त टूटे ,मकां *उजड़*
और आँखों से बहते आँसू
किसकी कहानी बयाँ करते हैं |
ऐ-री-सखी
हृदय में अनेकों सवाल ,
शब्द शब्द सुनाई पड़ता है
पर रेत से फिसलते,रिश्ते
*मेरे हाथों में क्यों नहीं टिकते ?*
बर्बादी का एक कड़वा अनुभव
खुद को सहेज कर रखूं या अपने वजूद को
दरके दोनों ही है .
पथरीली राहों पर खंड खंड
बिखरने को मजबूर अस्तित्व
एक लड़ाई का विकराल रूप क्यों
धारण करता है
इन आँखों में क्यों अब इतना
शोक भरा है
ऐ-री-सखी
तू ही बतला ना ,
मैंने अपना जीवन
किन अर्थो में जीया है ?
निगाहें पाक और दिल भी है साफ़
फिर भी ज़माने भर का दोष
मेरे ही सर *मढ़* दिया गया
अजब सी चुप्पी है ,,,,
*मगर कान फोडने वाली,असहनीय
निंदा और अपमान भी*
फिर भी
आँखे मूंद ,बढ़ते जाना
सर ना झुकना,लड़ते जाना
ये नियम है हम दीवानो का
कुछ ना समझना,
समझना तो
उस से अंजान बन कर जीना ,
ये नियम है आज के मरदानों का
बता ऐ-री-सखी ,
मैं क्या करूँ ,
अब तो पुरवा डोल गई
आँगन में बरखा भी आ कर
बरस गई
धानी सी चुनर का इस दुनिया ने
बिन सोंचे
मोल लगा दिया
क्यों बिना जाने ,
देखो फिर से इल्ज़ामों का
सिलेवार है ज़लज़ला
एक स्वप्न झूठा झूठा सा
जीने का विश्वास क्यों देता है
बाँध कर पाँव में बेडियाँ
साथ साथ चलने का
आभास क्यों देता है
क्यों पुराने संस्कार मेरे
बाँध देते है मुझे
मेरी मन की बेड़ियों के संग
और कहता है मन मेरा
झर झर ,झरने दो आँसूं अपने
जैसे पतझड़ में पत्ते झडे
तभी ,गीत मेरे बन जाते है
मेरी ही मौन वेदना की
अभिव्यक्ति का रूप
क्यों छाया पथ पर अब भी
अंगार सी लगती है
इस लंबी सी खामोशी के बाद
इस लंबी सी ख़ामोशी के बाद ||



अंजु चौधरी 'अनु'

Sunday, August 9, 2015

उसके लिए (सरोकार की मीडिया)



फेसबुक पर एक लेखक वर्ग ऐसा है जो हम जैसी घरेलू लेखिकाओं से बहुत डरता है क्योंकि हमारा लिखा (चाहे थोडा लिखें) तारीफ़ पाता है |ज्यादा की चाह के बिना हम अपना काम निरंतर करते रहने में विश्वास रखती हैं , इसी लिए हमारे मित्र और नए जुड़ने वाले दोस्त अपने आप से हमारे लिखे को छाप कर, वक़्त वक़्त हमें प्रोत्साहित करते हैं |ऐसे में अगर हम दिल से उन्हें आभार व्यक्त करते हैं तो इस से उस लेखक वर्ग को परेशानी क्यों होती है |
क्या इसका मतलब ये निकाला जाए कि ऐसे लोग घरेलू महिलाओं(जो अब लेखिका भी हैं) को आगे आने ही नहीं देना चाहते या फिर कोई उन्हें भी टक्कर दे सकता है, इस बात से डरते हैं |
ख़ैर ये कुछ जाहिलों की सोच है जिसके चलते हमारे लेखन में कभी कोई फर्क ना आया है और ना आएगा...जिसे जो सोचना है सोचे |
गजेन्द्र साहनी के अखबार ''सरोकार की मिडिया'' में अपनी कविता को देख कर उतनी ही प्रसन्नता हुई थी जितनी की पहली बार छपने पर हुई थी ...तब भी आभार व्यक्त किया था और आज भी गजेन्द्र साहनी की''सरोकार की मीडिया'' को आभार एवं शुभकामनाएँ .......
अखबार की कटिंग के साथ साथ अपनी लिखी कविता भी यहाँ पोस्ट कर रही हूँ ....
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उसके लिए

उसके लिए
आधी से ज्यादा जिंदगी
एक दुस्वप्न सी बीती
उसने
ना जाने कितना ही वक़्त
अपने बुने सूत के धागों में
निकाल दिया
मांगे हुए या दान में दिये गए
रेशों में लपेट लिया था खुद को

घर की बड़ी बहू होते हुए भी
वो कभी ना सजी,
ना संवरी
बस हाथ में चार पितल की चुड़ियाँ डाले
हमेशा करछी हिलाते हुए ही मिली
ना जाने कितने ही सपने
उसके भीतर
अपनी मौत मर गए
मौसम भले ही बदलने
बदला ना नसीब उसका,
पलंग का एक कोना पकड़े हुए
कभी खुद पर हँसती
कभी नसीब को रोती
कभी खुद पर नाराज़ होती
गीली आँखे लिए
नज़र आ जाती थी
अच्छे दिनों की आस में
उसका
पल पल बीत गया
दहेज का भी सामान
धीरे धीरे हाथ से
फिसल गया
ना कोई अच्छा दिन आया
ना इज्ज़त ना सम्मान मिला
पर उम्मीद और इंतज़ार का
एक बड़ा सा पहाड़
तोड़ने को मिल गया
फिर भी ...कुछ खास सी
'दिव्य' थी वो मेरे लिए
उसके टूटे-फूटे ब्यान
आज भी दर्ज है
मेरी यादों में
उसका चलना, बैठना,उठना
बात बात पर बिदकना
और फिर झट से मान जाना
ऐसी ही बहुत सी असंभव बातें
जो वो किया करती थी
आज भी अंकित है
स्मृतियों में मेरी
मेरे रीति -रिवाजों की तरह ||
अंजु चौधरी अनु

Sunday, May 17, 2015

बेटे की ख़्वाहिश................(अनुवादित कहानी)

नीता कोटेचा''नित्या''
Neeta Kotecha की लिखी गुजरती कहानी....''बेटे की ख़्वाहिश''जिसका अनुवाद मैंने किया है उस कहानी को कनाड़ा से प्रकाशित पत्रिका ''प्रयास'' में स्थान देने के लिए सरन जी का आभार
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ये गुजराती कहानी कुछ इस तरह है ....





" नही हमीद , आज हम खाना खाने नही जायेंगे. आज भी तुम वडा-पाव खा लो.. आज पैसे कम है बेटा. .."
" दादीजान , ओर कितने दिन हमें इस तरह कम कम खाना है.. अब मुझ से भूखा नहीं रहा जाता. कितने दिन से चिकन नहीं खाया. यहाँ की केंटीन में देखो ना कितना अच्छा खाना मिलता है |
सलमा अपने आँसुओं को छिपा कर बोली ः हमीद बस अब थोडे दिन ओर बेटा , अम्मी को घर ले जायेंगे फिर हम सब वापस अच्छा खाना खायेंगे "
सलमा को समझ नही आ रहा था कि वो हमीद को कैसे समझाए कि उसकी अम्मी को कैंसर था और उसके इलाज के लिए बहुत सारे पैसे बाहर से लेने पड़ते हैं इसी लिए आज-कल घर में पैसे कम पड़ जाते थे |
पर उस बच्चे में इतनी समझ कहाँ से होती .....वो बस अपनी भूख को समझता था, उसे तो बस खाना चाहिए था |
सलमा अपने वो दिन याद कर रही थी जब वो अपने परिवार के साथ सुकून की जिंदगी बसर कर रही थी |वो, उसका बेटा-बहु और उसका पोता हमीद |उसका बेटा ऑटो चलाता था और इसी में वो सब बहुत खुश थे |और एक दिन अचानक पता चलता है कि उसकी बहु शमशाद को कैंसर है और वो भी लास्ट स्टेज पे |बहु को तुरन्त इलाज के लिए हॉस्पिटल में दाखिल करवाया गया |
उस दिन से आज तक जैसे होस्पिटल ही घर बन गया है.. शमशाद की अम्मी नहीं थी |
तो वो ही उसकी सास और माँ भी थी.. बेटा दिन रात ऑटो चलाता था कि इतने पैसे इकट्ठे हो जाए कि वो अपनी बीबी का अच्छे से इलाज करवा सके पर सलमा दिल मे जानती थी की शमशाद अब कुछ ही दिनो की मेहमान है पर वो बेटे को कैसे कहे कि इतनी मेहनत मत करो जिस से की तुम खुद बीमार हो जाओ...... ....ना चाहते हुए भी जैसे सब की जुबान पे ताले लग गये थे.
हमीद को शमशाद के पास जाने की मनाई थी , शमशाद हमीद को गले से लगाने को तरस सी गई थी. पर हॉस्पिटल के नियमो के आगे सब बेबस थे |हॉस्पिटल के नियमों को ताक पर रखते हुए सलमा ने एक दिन डॉक्टर से कहा कि मरती हुई माँ को उसके बेटे को जी भर के देख लेने दो ....शायद उसकी आत्मा को कुछ तसल्ली मिल जाए|शायद जिंदगी के आखिरी पलों में उस माँ के दिल में जीने की चाहत बनी रहें|
सुबह-शाम हॉस्पिटल में हाज़री देते-देते अब सलमा भी थक चुकी थी और वो थकान उसके चेहरे पर दिखाई तो देती थी पर वो बड़ी ही सफाई से उसे छिपाने का हुनर भी जानती थी |बस उसके लबों से एक ही दुआ निकलती थी कि ''ऐ खुदा !मेरे हमीद की अम्मी को बचा लो क्योंकि माँ जितना प्यार बच्चे को कोई ओर नहीं दे सकता ''|
शमशाद को हॉस्पिटल में दाखिल करते वक़्त डॉ ने ज्यादा से ज्यादा 45 दिन का वक़्त दिया था और आज शमशाद को यहाँ आए हुए 20 दिन पूरे हो चुके थे....पता नहीं अब ओर कितने दिन की जिंदगी बची है....ये ना तो डॉ बता सकते थे और ना ही वो बताना चाह रह थे |
आज बीस दिन पूरे हो गए थे...रोज़ की तरह असीम अपनी अम्मी के पास बैठ कर दिन गिनता और अपनी मजबूरी पर रोना नहीं भूलता था और इन दिनों सलमा अपने बेटे के साथ साथ अपने पोते हमीद को भी बखूबी संभाल रही थी | वो किसी की हिम्मत को टूटने नहीं दे रही थी, भले ही वो खुद अंदर टूट चुकी थी क्योंकि वो जानती थी कभी भी कुछ भी हो सकता है |
सलमा और असीम बस किसी चमत्कार की उम्मीद लगाए बैठे थे पर कैंसर जैसा रोग इंसानों की तो छोड़ो...ये तो खुदा की भी पुकार भी नहीं सुनता बस ये तो एक बार आया तो इंसान की जान लेके ही जाता है |
हर डॉ का भी ये ही कहना है कि 'भले ही हमारे विज्ञान ने बहुत प्रगति कर ली है पर हम आज तक ये पता नहीं कर पाये कि कैंसर कैसे और क्यों होता है? और इसका पक्का इलाज़ क्या है, ये हम डॉ भी नहीं जानते हैं |इस रोग से लड़ने और इसकी दवाइयाँ इतनी मंहगी है एक गरीब आदमी के बुते के बाहर की बात है |
ऐसे ही एक दिन रात को जब असीम होस्पिटल पहुँचा तो शमशाद ने उसे कमरे मे बुलाया और कहा " आप इतनी महेनत करते हो पर आपको पता है ना कि मैं अब बचने वाली नहीं हूँ............. "
............शमशाद की पूरी बात सुने बिना ही असीम गुस्से में बुदबुदाते हुए कि 'देखता हूँ कि तुम्हें मुझ से कौन छिनता है' कमरे से बाहर निकल गया |
शमशाद ने एक फीकी सी मुस्कराहट के साथ अपनी आँखें बंध कर ली ..
दूसरे दिन सुबह की शिफ्ट खत्म करके असीम होस्पिटल मे आया, पर कमरे मे जाने से पहले उसने सोचा कि अम्मी रोज़ अच्छे खाने के लिए हमीद को बहलाती रहती है तो क्यों ना आज मैं ही उसके लिए कुछ खाने के लिए अच्छा से ले जाऊँ |उसे पता था कि अम्मी रोज़ उसे बस ये ही बात कहती थी कि जब तुम्हारी अम्मी ठीक हो जाएगी तब हम सब अच्छा खाना खाएँगे .....जब हम अम्मी को छुट्टी करवा कर घर ले जाएंगे... उस दिन हम घर पर ही चिकन बना कर खाएँगे '.......ये ही सोचते हुए वो केंटिन की तरफ बढ़ा |
वो केंटिन की तरफ बढा .. केंटिन मे जा के उसने देखा तो सामने अम्मी और हमीद एक टेबल पे बैठे थे.. हमीद की थाली मे चिकन सेंडविच था और वो उसे बहुत स्वाद से खा रहा था और अम्मी उसे अपनी भीगी आँखों से एकटक निहार रही थी |
कुछ अनहोनी के डर से वो अम्मी और हमीद के करीब गया तो हमीद उसे देखते ही चहकते हुए बोला '' अब्बा देखिए आज दादीजान ने मुझे चिकन सेंडविच खिलाया और आपको पता है आज हम अम्मी को अपने घर भी ले जा सकते हैं''................
असीम ने तुरंत सलमा को देखा तो सलमा की आँखों से आँसू बहने लगे और असीम सोचने लगा कि आज तो शमशाद भी बहुत खुश होगी कि आज बहुत दिनों के बाद उसके बेटे की अच्छा खाना खाने की इच्छा भी पूरी हुई ...............भले ही हमीद की ये ख़्वाहिश उसके जाने के बाद ही पूरी हुई थी ||
written by neeta kotechaa "nityaa"
अनुवाद .........अंजु चौधरी अनु








(चित्र गुगल साभार )

Wednesday, October 1, 2014

कत्ल



‘’ये अमीरों की जमात भी बड़ी अजीब सी होती हैं |इन लोगों की हर बात आम इन्सानों से अगल ही होती है|घर के रहन सहन, उनके कपड़े, उनके घर के झगड़े, जैसे हिन्दी सीरियल में दिखाये जाते हैं उनसे एक दम अलग .....यहाँ इन घरों में कोई ऊँची आवाज़ में बात नहीं करता |दो-चार गालियाँ इंग्लिश में निकाली और शटअप कहते हुए अपने अपने कमरे में चले जाते हैं....
ओर तो ओर बहुत से अमीर ऐसे है जो इन्सानों से ज्यादा अपने पालतू कुत्तों से प्यार करते हैं| हम सब से अच्छे तो ये कुत्ते ही हैं |भले ही बेचारे घर में बुजुर्ग अकेलेपन और बेचारगी से दम तोड़ दे, पर उनका डार्लिंग कुत्ता / कुत्तिया अकेली नहीं होनी चाहिए | 
कभी कभी तो मन में आता है कि मैं भी ऐसे ही किसी अमीर के घर का कुत्ता होता तो खूब मज़े में रहता....यार तंग आ गया हूँ ये घर घर में नौकर का काम करते हुए |वो साल कुत्ता होते हुए मालिक के साथ चिपक कर एक ही बिस्तर पर सोता है...वो भी ए.सी में और यहाँ हम साले सारा दिन घर का काम करते हैं तब भी इस उमस भरी गर्मी में पंखे के नीचे बैठने को तरस जाते हैं | खेर मैं अपनी क्या बात कहूँ, इस घर की असली मालिक भी एक इज्ज़तदार जिंदगी,अच्छे खाने,अपने कमरे और ए.सी के लिए तरस गया है, उस बेचारे को भी उसके बेटे ने हम सब के बीच सरवेंट क्वाटर में फेंका हुआ है |क्या फायदा, इतना पैसा होते हुए भी वो हम नौकरों से भी बुरी हालत में है | तरस आता है उस बुड्ढ़े पर|’’

मैं अपनी ही स्पीड से काम करता जा रहा था और अपने अंदर का गुस्सा सब्जी काटते हुए, अपने साथी नौकर से बात करता जा रहा था....मैं भी क्या करता, किस से अपने मन की बात करता, तभी तो यूं ही अपने मन की भड़ास कटती हुई सब्जियों पर निकाल लेता हूँ .....यूं लगता है जैसे मैंने सब्जी काटते हुए किसी का क़तल कर दिया हो |कम से कम मैं इन अमीरों से तो बहुत बेहतर था जो अपने घर के जिन्दा इंसानों को खुद से अलग कर, पल-दर-पल अपनी खोखली अमीरी के चलते वो अपने ही घर के बुज़ुर्ग का कत्ल तो नहीं कर रहा था |