Wednesday, October 1, 2014

कत्ल



‘’ये अमीरों की जमात भी बड़ी अजीब सी होती हैं |इन लोगों की हर बात आम इन्सानों से अगल ही होती है|घर के रहन सहन, उनके कपड़े, उनके घर के झगड़े, जैसे हिन्दी सीरियल में दिखाये जाते हैं उनसे एक दम अलग .....यहाँ इन घरों में कोई ऊँची आवाज़ में बात नहीं करता |दो-चार गालियाँ इंग्लिश में निकाली और शटअप कहते हुए अपने अपने कमरे में चले जाते हैं....
ओर तो ओर बहुत से अमीर ऐसे है जो इन्सानों से ज्यादा अपने पालतू कुत्तों से प्यार करते हैं| हम सब से अच्छे तो ये कुत्ते ही हैं |भले ही बेचारे घर में बुजुर्ग अकेलेपन और बेचारगी से दम तोड़ दे, पर उनका डार्लिंग कुत्ता / कुत्तिया अकेली नहीं होनी चाहिए | 
कभी कभी तो मन में आता है कि मैं भी ऐसे ही किसी अमीर के घर का कुत्ता होता तो खूब मज़े में रहता....यार तंग आ गया हूँ ये घर घर में नौकर का काम करते हुए |वो साल कुत्ता होते हुए मालिक के साथ चिपक कर एक ही बिस्तर पर सोता है...वो भी ए.सी में और यहाँ हम साले सारा दिन घर का काम करते हैं तब भी इस उमस भरी गर्मी में पंखे के नीचे बैठने को तरस जाते हैं | खेर मैं अपनी क्या बात कहूँ, इस घर की असली मालिक भी एक इज्ज़तदार जिंदगी,अच्छे खाने,अपने कमरे और ए.सी के लिए तरस गया है, उस बेचारे को भी उसके बेटे ने हम सब के बीच सरवेंट क्वाटर में फेंका हुआ है |क्या फायदा, इतना पैसा होते हुए भी वो हम नौकरों से भी बुरी हालत में है | तरस आता है उस बुड्ढ़े पर|’’

मैं अपनी ही स्पीड से काम करता जा रहा था और अपने अंदर का गुस्सा सब्जी काटते हुए, अपने साथी नौकर से बात करता जा रहा था....मैं भी क्या करता, किस से अपने मन की बात करता, तभी तो यूं ही अपने मन की भड़ास कटती हुई सब्जियों पर निकाल लेता हूँ .....यूं लगता है जैसे मैंने सब्जी काटते हुए किसी का क़तल कर दिया हो |कम से कम मैं इन अमीरों से तो बहुत बेहतर था जो अपने घर के जिन्दा इंसानों को खुद से अलग कर, पल-दर-पल अपनी खोखली अमीरी के चलते वो अपने ही घर के बुज़ुर्ग का कत्ल तो नहीं कर रहा था |

Saturday, July 26, 2014

नकली चहरे






तेरह साल का परेश रंगमंच के हॉल की सफाई किया करता था |वहाँ रोज़ कोई ना कोई साहित्य से जुड़ा बड़े नाम का व्यक्ति आता ही रहता था |

इसी के चलते परेश के दिमाग में नित-नई कहानी/कविता जन्म लेती ही रहती थी तो वो सब अपनी कॉपी में लिखता रहता था||उसने एक दो बार कोशिश की कि नाटक रचने वाले उसकी कहानी भी पढे पर,हर किसी ने उसे छोटा समझ का नजरंदाज कर दिया| वो मायूस होकर फिर से अपने काम में लग जाता था |पर उसे पक्का विश्वास था कि कामयाबी का एक दिन उसके हिस्से भी लिखा होगा जो सिर्फ उसके लिए होगा |
ऐसे ही दो साल ओर बीत गए |एक दिन उस रंगमंच की रौनक देख कर वो समझ गया की आज कोई बड़ी हस्ती यहाँ आने वाली है|सामने लगे बैनर पर मशहूर कथाकार ऋतु कपूर का नाम देख कर वो बेहद खुश हो गया |भले ही वो उन्हे नहीं जानता था पर वो भी लिखती हैं ये ही बात उसके लिए बहुत बड़ी थी सही वक़्त पर कार्यक्रम शुरू हो गया वहीं ऋतु जी ने अपने भाषण में नए बच्चों को लेखन सीखने के लिए मुफ्त की शिक्षा देने की बात कहीजिसके चलते उन्होने अपने नाम के पर्चे भी पूरे हॉल में बँटवा दिए और वही पर्चा परेश को जब मिला तो उसने भी उसे संभाल कर रख लिया |

   ओर एक दिन इसी के चलते वो ऋतु जी के घर जा पहुंचा और अपनी लिखी कहानियाँ उनके चरणों में रख दी और कहा ‘’मैंने जो जो लिखा हुआ था वो सब इस में हैंअब इस से आगे मैं आपसे सीखना चाहता हूँ’’|परेश से कॉपी लेते हुए वो बोली ''देखो बच्चे ! मैंने इसे रख रही हूँ आराम से पढ़ कर तुम्हें बताती हूँमैं फोन करूंगी बस तब ही तुम मुझ से मिलने आना |''

दिन,महीना और फिर दो महीने बीत गए परेश को ऋतु जी का कोई फोन नहीं आया परेश ने कुछ वक़्त के बाद उनसे संपर्क बनाने की बहुत कोशिश की पर हर बार नाकाम हो गया,तभी उसे किसी से पता चला की कपूर मैडम जी की एक नई कहानियों की किताब आई है जो बाज़ार में बहुत धूम मचा रही है,उसने वो किताब खरीदी और जैसे जैसे उसने कहानियाँ पढ़ी उसकी समझ में आ गया कि क्यों ऋतु जी उस से मिलने का मन नहीं बना सकी |आज वो समझ गया कि उसके जीवन की अब तक की सारी पूँजी लुट चुकी है,वो जान चुका था कि इन बड़े नाम वालों के भी नकली चहरे हैं |

Tuesday, June 24, 2014

लकीरें



इन आड़ी-तिरछी लकीरों से
खींचती है ज़िंदगी एक तस्वीर
एक सोच
एक द्वंद्ध
एक लड़ाई 
इस बेरहम जिंदगी से

एक सोच
उस खालीपन की कसक
कुछ तो करना है
जो अभी अधूरा है

एक जद्धोजहद
उस खालीपन की
जिसके इंतज़ार में
उम्र निकलती जा रही है

खाली से टेबल पर
खाली से वक़्त में
कागज़,पेंसिल से खेलने की कला
जो बेमतलब खींच देती है
किस्मत की लकीरों को
इन आड़ी-तिरछी रेखाओं की तरह ||





ये तन्हाई भी क्या चीज़ होती है, बेकार बना देती है इंसान को
क्या करेगा ये दिल यूं ही , पुराने पन्ने पलट-पलट कर ||


(एक ही शॉर्ट में लिखी गयी कविता को यूं अब ब्लॉग में रखने की सोची है .......इस कविता में भी लिखने के बाद कोई भी बदलाब नहीं किया गया )



अंजु चौधरी अनु

Friday, May 9, 2014

माँ कैसे जान लेती है दिल की हर बात


 
माँ 
शब्द एक  
पर,खुद में सम्पूर्ण 

माँ 
कैसे जान लेती है 
दिल की हर बात  
हर जज़्बात को 
जीवन चक्र 
शैशव से यौवन तक के 
सफर को 
और आँखों में 
झलकते किसी के प्यार को 

माँ 
शांत, सौम्य 
पर दिल से धरती सी मजबूत  
उसकी फुलवारी में महकते 
हर फूल की 
महक को वो कभी 
खोने नहीं देती और 
अपने मौन को टूटने नहीं देती 

उसकी आँखों के पानी को 
जब तक समझो 
वो भाप बन कर उड़ चुके होते हैं 
वो,हर दुख को झाड लेती है
जीवन जीने के लिए   

माँ 
जो पल-पल अहसास करवाती है 
अपने होने का 
अपनी चुप्पी और बोलती हुई आँखों  से 
 
उसके कमरे का वो कोना 
उसके अपने पलंग की 
वो ही साइड
और साइड टेबल पर रखा हुआ 
उसकी दवाइयों का डिब्बा 
जो बरसों पुराना है 
उसकी अपनी यादों की तरह  
और उसी जगह पे 
वो बरसों से बैठ कर 
अपनी आँखों के चश्मे को 
थोड़ा नीचे कर 
देखती है 
हर आने जाने वाले को 

माँ, झट से जान लेती है 
हमारी हर कमजोरी को 
तभी तो बिन बोले भी 
हम दोनों के बीच निरंतर 
मीठे पानी की एक शांत 
झील बहती है  

हर बार उसके इस वात्सल्य से 
हम सब चकित रह जाते हैं  
और सोचते रहते थे कि
माँ कैसे जान लेती है दिल की हर बात 

अंधेरी दलहीज हो या रोशनी आपार 
पीढ़ा हो या प्यार का मिलाजुला प्रवाह 
अब मुझ से भी हो कर गुज़र रहा है 
हम दोनों के बीच की 
प्रवाहित नदी से ही तो 
मैंने जाना 
माँ और बच्चो के बीच का अटूट रिश्ता 
और इस लिए अब मैं भी कह सकती हूँ 
कि 
हाँ! माँ जान लेती है दिल की हर बात ||

-- 
अंजु चौधरी (अनु)


(नितीश मिश्र की कविता से प्रेरित )

Saturday, May 3, 2014

एक सोच फेसबुक के लिए


चहल-पहल की इस नगरी में 
हम तो निपट बेगाने है 
जपते राम नाम सदा 
हम उसी के दीवाने है 

बेगानों की इस दुनिया में 
सजे बाज़ार मतवालों के हैं 
छीन ले जो खुशियाँ सभी 
ऐसे दुश्मन भी  नहीं बनाने हैं 

भूल कर सब बैठे घर अपना 
ऐसे यहाँ बहुत दीवाने हैं 
सजा लेते चाँद तारों से अपना दामन 
लोग कैसे-कैसे इन कैदखानों में हैं 

हर हाल में करते खुद को गुमराह 
बिन पैसे यहाँ तमाश-खाने हैं 
मिलता दर्द जिनकी पनहा में 
हमें ऐसे घर नहीं बनाने हैं ||


अंजु चौधरी (अनु)



Tuesday, April 29, 2014

उसकी आखिरी रात में



उसकी आखिरी रात में 
साँसों का चलना 
और 
साँसों का रुकना 
इसी के बीच 
रुक-रुक के चलती जिंदगी 

पर वो 
जिंदगी की आखिरी रात 
सो कर नहीं बिताना चाहती 

वो भूल जाना चाहती है  
कि 
वो एक औरत है 
एक स्त्री, एक माँ है 
एक बेटी और एक बहन है 
किसी के घर की  
वो  खुद के लिए एक संसार 
रचना चाहती है 

उसके आँसू, उसकी हँसी
और उसके दर्द की परछाई
जिस में छिपी है उसकी जिंदगी की सच्चाई 
जिस से वो   
बाहर निकलना चाहती है 
जो फर्ज़ और दायित्व के नाम पर 
उसकी पीठ पर लाद दी गयी है 

वो पत्थर तोड़ती,
किसी के घर के धोती बर्तन 
या मजदूरी की कीमत पर 
अस्मत पर वार सहती 
जिसको हर किसी ने कम समझा 
कम ही आँका 

फिर भी वो अपनी 
पथरीली और काँटों की 
राहों को त्याग 
खुद के लिए 
मखमली राह का  
निर्माण करना चाहती है  

अपनी आखिरी रात 
अपने ही अंदर आँसुओं को ओढ़ कर 
नहीं सो जाना चाहती 

एक आत्मविश्वास सी परिपूर्ण 
नए समाज का निर्माण कर  
वो तो नवजात शिशु सी किलकारी के साथ 
विदा लेना चाहती है  

उसे अपने 
विस्तार के लिए 
किसी समुंदर की जरूरत नहीं  
उसकी उन्मुक्त उड़ान ही 
उसकी उपस्थिति है इस जाहन में 

है अब 
उसका खुद का आकाश,
खुद का विस्तार
खुद की जिंदगी की 
आखिरी सांस  
उसकी आखिरी रात में |

अंजु चौधरी (अनु)

Saturday, April 26, 2014

हल्ला बोल


जानती हूँ कि मैं कोई नई बात नहीं लिख रही हूँ ....पर आज जब हल्ला बोल प्रोग्राम देखा तो एक सोच मन में उठी और उसी सोच को बस शब्द देने का प्रयास किया है



टीवी पर आने वाले कार्यक्रम, खासकर सास-बहु टाइप प्रोग्राम से अब ऊब चुकी हूँ | इन बेकार के प्रोग्राम का असल जिंदगी से कोई लेना-देना नहीं है, एक भेड़चाल की तरह सब कुछ सालों चलते रहते हैं | ऐसा एक कार्यक्रम एक चैनल पर जैसे ही हिट होता है उसी टाइप के सीरियल हर चैनल पर शुरू हो जाते हैं |अब झेलों इन्हीं कार्यक्रमों और न्यूज़ चैनल्स का तो ओर भी हाल बुरा है| एक ही न्यूज़ को बार-बार दिखा कर इतना बोर कर देते हैं कि फिर से न्यूज़ देखने की हिम्मत ही नहीं बचती |

जैसे जैसे मैंने आज कल के युवाओं की पसंद के प्रोग्राम देखने शुरू किए हैं वैसे वैसे मैं जान पा रही हूँ की आज कल अपने ही समाज में युवा होती लड़कियों के लिए जीना कितना मुश्किल हो गया है |मेरी अपनी कोई बेटी नहीं है....शायद इसी वजह से मैंने बहुत सी बातों से अंजान रही |

बेटों की माँ होना और एक युवा होती बेटी की माँ होने में बहुत फर्क है ये बात अब मैं बहुत अच्छे से समझ गयी हूँ |पर आजकल की लड़कियाँ भी घर बैठना,घर के कामों में खुद का इन्टरेस्ट बना के रखना पसंद नहीं करती | उनकी भी ये ही इच्छा रहती है कि वो भी किसी ना किसी फील्ड में महारथ हासिल करें |

मैं इसे गलत नहीं मानती पर जिस तरह से लड़कियाँ को बहका कर गलत रास्तों पर आगे बढ़ाया जा रहा है वो हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए ठीक नहीं है |तभी तो झूठे सपने और वादों की बातों में ऑफिस में काम करने वाली लड़की अपने बॉस के हाथों छल ली जाती है....कोचिंग क्लास लेने वाली लड़की को उसका ही टीचर, अच्छे रेंक आने का लालच दे कर, कहीं का नहीं रहने देता |

अपने सपनों को सच करना क्या कोई गुनाह है? अपने लिए कुछ अच्छा सोचना क्या इतनी बड़ी गलती है कि लड़की होने के नाते उसकी कीमत उसे अदा करनी ही है ???

गंभीर प्रश्न तो बहुत है,मुद्दे हर कोई उठा देता है पर उसका हल कोई भी नहीं सुझाता |

आज अभी एक प्रोग्राम में देखा कि स्विमिंग सीखने वाली कॉलेज की लड़की को उसका कोच हर 
तरीके से तंग करता हैं और उसकी आँखों में जीतने का सपना इतना सजा देता है कि ताकि वो उस लड़की को अपने साथ सेक्सुयली ईनवॉल्व कर ले पर लड़की को उसके इरादे का पता चल जाता है |इसी के चलते वो कॉलेज के प्रिन्सिपल और सबके सामने उसके सच को अपनी समझदारी से,सभी सुबूतों के साथ ...उसके इरादो का सब के सामने खुलासा कर देती है |

पर हर लड़की ऐसा नहीं कर सकती....सब में इतनी हिम्मत नहीं होती कि वो अपने साथ हो रहे गलत व्यवहार को, हो रहे अन्याय का खुल कर सामना कर सके क्योंकि हमारा समाज कभी आदमी में कोई बुराई नहीं देखता बल्कि उसके हर बुराई लड़की में ही नज़र आती है|तब मन ओर भी दुखता है जब अपने ही अपनें बच्चों की बात को नहीं समझते, वो भी बस दुनिया की कही बातों में आ कर अपने बच्चों का मूल्यांकन उनकी बातों से करने लगते हैं |

बहुत से लोगों के मुँह से हर टीवी के कार्यकर्मों की बुराई ही सुनी है यहाँ तक बहुत बार मैंने भी ऐसा ही कुछ कहा और लिखा भी है |पर आज मैं इस बात से सहमत हूँ कि जिस तरह आजकल वी टीवी (VTV) और बिंदास टीवी (bindas tv)पर दिखाये जा रहे प्रोग्राम हल्ला बोल (halla bol) हीरोस(heroes), सोनी टीवी (sony tv) पर दस्तक(dastak) और लाइफ ओके (life ok) पर सावधान इंडिया(savdhan india) कुछ ऐसे कार्यक्रम हैं जिन्हें देख कर कम से कम हर युवा लड़की या कोई भी कामकाजी महिला अपने आपको को सेक्सुयल हेरस्मेंट होने से बचा सकती हैं | 



एक माँ होने के नाते में इतना जरूर जानती हूँ की आजकल बच्चे बहुत समझदार और प्रेक्टिकल हैं |


-- 
अंजु चौधरी (अनु)

Thursday, April 24, 2014

रोशनियाँ




टिमटिमाती  रोशनियाँ
और जंगल की आग का 
धुआँ 
सड़कों से गुजरती  गाड़ियाँ
और इन सबका शोर 
उसके कानों में 
फुसफुसाता है 
अपने व्यवस्ता की दास्तां 

एक अजीब सा शोर 
एक अजीब सी घुटन 
उसकी आँखों में काँपती है 

और फिर एक ऊँची आवाज़ 
ज़ार-ज़ार 
खड़खड़ाती सी 
उसे भेदती हुई 
आर-पार हो जाती है 
उसे अकेला कर देने के लिए 
बस इतना ही काफी है ||
-- 
अंजु चौधरी (अनु )

Tuesday, April 22, 2014

ऐ-री-सखी (अकेले मन का द्वंद्ध )

(ऐ-री-सखी कविता संग्रह की ही एक कविता )

ऐ-री-सखी
तू ही बता 
मैं कब तक तन्हा रहूँगी  


कब! 
मेरे मन की चौखट पे 
धूप सी इस जिंदगी में 
कोई आएगा 
जिस संग मैं
साजन गीत गाऊँगी 

तब!
बसंत के आने पर  ,
मेरी जिंदगी की भौर में
तभी तो बहार आएगी
जो  मल्हार का रूप धर
उस संग प्यार के नगमे गाएगी
हम दोनों मिल कर खेलेंगे  ,
खेल जीवन-संगीत का
बन जाएँगे अफसाने ,
हम दोनों के
जब दो दिल मिल जाएँगे  

देख कर रूप प्यार का
सूने जीवन में भी
गुलशन भी खिल जाएँगे
जब आँखे कुछ कहेंगी
ख़ामोशी और बढ़ जाएगी
एक संगीत का सुर मिल जाएगा
तब,तन मन गीत सुनाएगा


मोहब्बत में
है ये मादक मदिरा
मद में करे मदहोश जो
प्यार में 
सरस साथ बन साजन
खुद को भी लहराए वो 


कैसा पुनीत अवसर होगा
जब सावन ही मेरे
भीतर होगा
मैं भी छम छम नाचूँगी 
गीत प्यार के गाऊँगी

खुशबू बन महकुंगी और
सखियाँ चुपके से आएँगी
मुझे छेड़-छेड़ कर जाएँगी


तब,मैं भी दूर खड़ी मुस्कुराऊँगी 
जब बढ्ने लगेगी मेरे दिल की ये धड़कनें
तो,उस संग प्यार को ओर बढ़ाऊँगी   



पर, आने पे उसके !
वो कब तक रहेगा पास मेरे
कब तक रोकेगी उसे
मेरी ये आस रे ,

मेरी शोख अदाएँ
कब तक उसके नैनों से
बातें कर पाएँगी 


मैं,शरमायीं अलसाई आँखों को ,
कब तक नीचे रख पाऊँगी
कब तक मोहिनी बन 
मैं,मोहब्बत में उसे रिझा पाऊँगी 


बोल ना! ऐ-री-सखी,
मैं कब तक ,
अपने ही प्यार के ,
यूँ ही सपने सजा
गीत अकेले-अकेले गाऊँगी ||

Sunday, February 2, 2014

आह! जिंदगी ....खुशी का वो पल




अहा!जिंदगी 

Photo

Photo...........पेज 58...

 
सृजन के विविध आयाम ............उम्दा पुस्तकों से गुजरने का एहसास ही अलहदा है | यूं देखने में तो पुस्तकें निर्जीव लगती हैं,लेकिन अगर उसकी अंतरात्मा को हम समझ पाएं तो वह हमारे लिए जीवन से कहीं  बढ़कर साबित होती हैं|इस बार आपके लिए कुछ ऐसी पुस्तकों का संकलन किया गया है, जो मनोरंजन के साथ-साथ चिंतन करने पर भी मजबूर कर देंगी |......'अहा! जिंदगी '' के फरवरी अंक में ''गुलमोहर'' को भी इसी श्रेणी में शामिल किया गया है ||



31 जनवरी को ''अहा! जिंदगी'' का फरवरी अंक (प्रेम और मैत्री )मेरे हाथ में था ओर उस वक़्त मैं परिवार के साथ अमृतसर जाने के लिए घर से निकाल रही थी इसी लिए इस पत्रिका को  ऐसे ही हाथ में पकड़ कर मैंने अपने घर से विदा ली |ट्रेन में किसी भी किताब को पढ़ने का अपना एक अलग ही मज़ा है ...इस लिए इसे पन्ने दर पन्ने पढ़ते हुए ...यकायक पेज़ 58 पर नज़र पड़ते ही मैं खुशी से उछल पड़ी और साथ बैठे अपने पति (महेंद्र जी ) की बाजू को लगभग मैंने ज़ोर से झंझोर  दिया और कहा ये देखो ....मेरी ''गुलमोहर'' की न्यूज़ इस में आई है ....मेरी आवाज़ इतनी ज़ोर से तो थी की मेरी बाजू वाली सीट और आगे की सीट वालों ने मुझे मुड़ कर देखा ....एक बार तो मैं झेंप गयी पर सबकी परवाह किए बिना मैंने ''अहा! जिंदगी'' इनके हाथ में पकड़ा दी और सीधा मुकेश कुमार सिन्हा (मेरे साथ इस पुस्तक के संपादक)को फोन लगा दिया और उन्हे भी ये अंक पढ़ने को कहा .......
कितना सुखद पल था ....इस का मैं अब यहाँ लिखा कर शब्दो में बयान भी नहीं कर सकती .....बस इतना ही कहूँगी कि....सच का दामन थाम कर चली थी, भले ही मंज़िल दूर और बहुत कठिन रही पर कुछ अच्छे लोगो के साथ ने मेरे सफर को यादगार बना दिया |

मुकेश और मैं संपादक होने के नाते मैं अपने मन की खुशी आप सबके साथ यहाँ सांझा कर रही हूँ और आभार करना चाहती हूँ उन तमाम दोस्तों का जिनकी वजह से मैं आज इस मुकाम पर हूँ और उन आलोचक दोस्तों का भी जिनकी वजह से मैं दिल ही दिल में अपने आप को ओर भी मजबूत करती चली गई ....खुद को साबित करने की ज़िद्द ने मुझे बहुत से लोगों की नज़रो में जरूर घमंडी बना दिया पर मेरे अंदर से सच को सिर्फ मेरे कुछ बहुत करीबी दोस्त ही जानते हैं |

गुलमोहर ....कस्तूरी .....पगडंडियाँ और अरुणिमा के हर प्रतिभागी को दिल से आभार जो मेरे इस सफर के साथी बने और आने वाले वक़्त के लिए भी ये वादा है कि जिस मंच को नए साथियों को देने का वादा किया था वो मंच यूं ही अपना काम करता रहेगा |
 

Saturday, January 25, 2014

नेता और राजनीति


अपने नेताओं में 
पहले जैसी बात कहाँ 
बिन मांगे मिल जाए इंसाफ
अब वो हालत कहाँ

वक़्त के साथ साज़ बदल रहे 
देश में गद्दार बढ़ रहे 
हो रही कुर्सी की होड़ यहाँ 
अब ईमान की
वैसी रात कहाँ 
पहले जैसी बात कहाँ

 


राज़ की बाते राज़ रही
गँवारो के हाथों 
हमेशा सरकार रही
इस देश में अब
पहले जैसी बात कहाँ

बुत बने बैठे हैं

सरकारी अफसर और
रहनुमा यहाँ
विषैली राजनीति में
धरणों की भरमार यहाँ
फिर भी धुल जाते 
सारे पाप यहाँ
अब,पहले जैसी बात कहाँ


कैसा ये गणतन्त्र है

कैसी है ये स्वतन्त्रता
लेश मात्र भी किसी नेता को
कोई लज्जा नहीं  

ना पाप का अहसास है
ना है आदमी असली
मौत भी बेरंग नहीं
बढ़ रहा छल पल पल यहाँ
अब पहले जैसी बात कहाँ ||

                                                             

Sunday, January 19, 2014

चन्द्र्कान्त देवताले जी से एक मुलाक़ात ....14 दिसंबर 2013









उज्जैन यात्रा के दौरान हमें  (मैं, विजय सपपत्ति और नितीश मिश्र ) चन्द्रकान्त देवताले जी से मुलाक़ात करने का सौभाग्य मिला  | बेहद सरल स्वभाव का व्यक्तित्व लिए हुए वो हमें लेने अपनी गली के नुक्कड़ तक आए | बेहद आदर भाव से अपने घर के आँगन में बैठाया |शालीन स्वभाव और ठहरा हुआ व्यक्तित्व,ऐसा पहली बार देखने को मिला | स्वभाव से हंसमुख .76 साल की उम्र में भी गजब का जोश देखते ही बनता था | एक साहित्यिक चर्चा जिसके अंतर्गत बहुत सी बातों पर हम लोगों की बातचीत एक चाय के दौर के साथ शुरू और चाय खत्म होने के साथ ही खत्म हो गई |उसी चर्चा का एक हिस्सा आप सभी के साथ यहाँ सांझा कर रही हूँ .........

हम तीनों का एक जैसा ही सवाल था जो पूछा विजय सपपत्ति ने कि आज के लेखन और लेखक/लेखिका की परिभाषा क्या है ?

देवताले जी
आप खुद ही देखे वक़्त बादल रहा है और वक़्त के मुताबिक लेखन में भी बदलाव आना बेहद जरूरी है | जिस तरह वक़्त के साथ साथ समाज बदल रहा है उसी को लेकर लेखन में भी बदवाल आ रहे हैं |उन्मुक्तता और सेक्स को लेकर आज बहुत सी कविता और कहानी का लेखन, लेखकों द्वारा पढ़ने को मिल रहा है |कुछ साल पहले तक सेक्स के विषय पर बात करना भी बुरा माना जाता था, वहीं आज खुले तौर पर इसे लिखा जा रहा है |लेखक या लेखिका अब इस फर्क को अपनी लेखनी से मिटाते जा रहे हैं, बात ओर गंभीर तब हो जाती है जब एक औरत इस विषय पर लिखती है और उसे टिप्पणी के तौर पर गालियाँ और बहुत कुछ अनाप=शनाप सुनने और पढ़ने को मिलता है|बहुत सी लेखिकाएँ जो नयी है और ऐसा वैसा अपने खुलेपन (बोल्डनेस) की वजह से लिख तो देती है पर बाद में खुद ही सबसे बचती फिरती हैं .....ऐसे भाई ...ऐसा लिखना ही क्यों कि सबसे नज़ारे बचानी पड़े (ओर एक ज़ोर सा ठहाका लगा कर वो हँस पड़ते है )

देवताले जी ने अपनी बात को ज़ारी  रखते हुए कहा कि ....
कैसी विडम्बना है कि हिन्दी साहित्य अलग अलग खेमों में बंटा हुआ है | भारतीय साहित्यकार, प्रवासी साहित्यकार या स्थानीय साहियत्कार | पर ये बात समझ में नहीं आती कि लेखन को अलग अलग क्षेत्र में कैसे बाँटा जा सकता है | जितना सबको सुना और समझा ....बस ये ही बात समझ आई कि भावनाएँ  सब की एक जैसी है पर अनुभव अलग अलग जिस के आधार पर हर कोई लिखता आ रहा है और उसी पर आज तक लेखन टीका हुआ है|

बहुत बार मैंने एक बात को बहुत ही गहराई से महसूस किया है और वो ही बात, मुझे उस वक़्त बहुत दुखी कर जाती है कि जब कोई लेखक या लेखिका, किसी को जाने बिना उस पर किसी भी बात को लेकर दोष मढ़ने लगते हैं | कोई अच्छा लिख रहा है तो इस बात से परेशानी, कोई शांत रह कर काम करता है तो परेशानी,किसी को भी सम्मान मिले तो बेकार का होहल्ला |ये कैसा लेखक वर्ग है जो पढ़ा लिखा होने के बाद भी किसी की भावनाएँ नहीं समझता |
कविता कहानी लिखने वाले दिल से इतने कठोर कब से और कैसे हो जाते हैं कि किसी की भी उसकी पीठ के पीछे बुराई करने से भी गुरेज नहीं करते ''फलां ने ऐसा कर दिया .....देखो तो फलां ने कैसा लिखा है ..उफ़्फ़ रे बाबा ....पता नहीं कैसे हँस कर सबको पटा लेती है या यार! वो ''सर'' को कितना मस्का मारता है या कितना मस्का मारती होगी ''.....आदि आदि | ऐसी ही कितनी बाते हैं जो आते जाते सुनने को मिल जाती हैं |पर मेरा बस इतना ही कहना है कि ''अरे रे बाबा! किसी की भी परिस्थिति जो जाने बिना, उस पर किसी भी तरह की कोई भी टिप्पणी मत करें |

टिप्पणी करने वाले/वाली की बुद्धि पर तब ओर भी हंसी आती है जब वो पूरी तरह से सच से आवगत हुए बिना सबके आगे  किसी दूसरे के सच  को सांझा करने की कोशिश करते हैं |अरे भाई! सच का तो जाने दीजिये....सबके लिए उसके विचार  कैसे हैं, ये तक उसे नहीं पता होते और वो दावा करते हैं पूरे सच को उजागर करने का |बुराई करने वाले ये नहीं जानते कि कब किसी की कोई भी कृति कालबोध बन जाए....इस बात को कोई नहीं जानता |
मुझे आज.भवानी प्रसाद मिश्र जी की ये पंक्तियाँ बरबस यूं ही याद आ गयी
अनुराग चाहिए
कुछ और ज्यादा
जड़-चेतन की तरफ /लाओं कहीं से थोड़ी और |
निर्भयता अपने प्राणों में |
बस ये ही सोचता  हूँ कि काश बेकार की बातें  करने वालों ने कभी अपनी सोच का  रचनात्मक उपयोग करने की सोची होती तो वो लोग आज अपने लेखन को शिखर पर पाते  |

इस पर मैंने उनसे पूछा ....''दादा'' आप अभी तक कहाँ कहाँ गए हैं और किन किन साहयित्कारों से मिलें हैं ?
तो उनक जवाब ये था कि ......
मैं अपनी नौकरी के दौरान लगभग पूरा हिंदुस्तान घूम चुका हूँ और अभी तक जहाँ-जहाँ जाना हुआ....वहाँ के जन समूह और उसको लीड करने वाले अलग अलग साहित्यकारों से मेरी मुलाक़ात हुई है   | हर क्षेत्र के लोग, उनकी सोच, वहाँ के रहन सहन के मुताबिक ही मिली | मैंने इस बात को बहुत ही गहराई से समझा है कि किसी की बात का किसी से तालमेल ही नहीं होती | एक बुद्धिजीवी वर्ग है, जिसकी अपनी ही दुनिया है, अपने ही लोग है और एक सीमित दायरा है,जो फालतू बोलने में विश्वास नहीं करता पर करता अपने मन की है |फिर भी वो अपना काम करते हुए बहुत अच्छा लिख रहे हैं, उन सबका साहित्य में अपना एक मुकाम है |
ऐसा मेरा अपना खुद का निजी अनुभव है जैसे अलग अलग धर्मगुरु हैं और उनके अलग अलग भक्त ....वैसे ही साहित्य में भी हर साहित्यकार की अपनी ही सोच और अपनी ही विचारधारा है, जो उनके लेखन को एक अलग ही पहचान प्रदान करती है |

और नितीश मिश्र का एक आखिरी सवाल था ....दादा क्या कविता कहानी लिखने का कोई उचित समय हैं ? कई लोगों  से सुना है कि वो सुबह के वक़्त तरोताज़ा होते हैं इस लिए वो सुबह के वक़्त ही लिखते हैं ?
 

इस पर एक बार फिर वो ठहाका लगा कर हँसते हुए हम तीनों से कहते है कि
क्या कविता लिखना या कहानी लिखना किसी स्कूल के चेप्टर जैसा है कि उसे याद किया और रटा मार कर सुबह के वक़्त लिख दिया | अरे भाई लेखन को वक़्त में मत बांधो, वो तो खुली हवा है उसका अहसास करो और अपने शब्दों में उतारों | अपने शब्दों को जीना सीखो, तुम शब्दों में जीओ और शब्द तुम्हें जीवन में शालीनता से कैसे लिखा और जिया जाता है वो अपने आप सीखा देंगे सीखा देंगे |''


हम सबकी चाय के साथ साथ बातचीत भी यही समाप्त हो गयी और चलते चलते देवताले जी ने अपनी इस पुस्तक को भेंट करके हम सबका बहुत खूबसूरती से सम्मान किया |इनके लिए आभार जैसे शब्द भी बहुत छोटे पड़ जाते है |


 अपनी कविताओं की पुस्तक देवताले जी को भेंट करते वक़्त की तस्वीर


 गुलमोहर को पढ़ने से ठीक पहले की तस्वीर ......ये बताते हुए बेहद खुशी हो रही है कि उन्होने गुलमोहर पढ़ने के साथ साथ इस संग्रह के हर प्रतिभागी की खुले दिल से तारीफ़ भी की |
देवताले जी से विदा लेते वक़्त के भावुक से क्षण ..........नितीश मिश्र और मैं 


 अंजु(अनु)चौधरी 

Saturday, January 11, 2014

ये औरत ....






एक वक़्त था जब उसे किसी ना किसी ऐसे इंसान की जरूरत पड़ती थी ...जिसे वो अपने दिल की बात बता सके...किसी के साथ अपने दिल की बातें बाँट सके, पर उस वक़्त किसी ने उस का साथ नहीं दिया ...पर आज हर बात पलट हो रही है,अब यहाँ ...घर भर के लोग उसे आवाज़ देते हैं और वो अपनी दुनिया में कहीं बहुत दूर खो जाना चाहती है |

आज उसका दिल सब बातों  से और इस दिखावटी दुनिया से भर चुका है | एक इंसान जिसे वो दिल से पसंद करती थी और उसे बार बार आवाज़ देने पर भी अपने करीब कभी महसूस नहीं कर पाई ...आज वही इंसान उसे क्यों बार बार आवाज़ देकर अपने करीब करने की कोशिश करता है |

एक इंसान जिसे उस ने दिल से अपना बच्चा समझा और ये चाह की वो उसकी सुने और थोड़ा सा उसके मन मुताबिक खुद को ढाल दे ...पर वो कभी ऐसा नहीं कर पाया ...तो आज वो ही इंसान क्यों बार बार उसे  ''माँ'' कह कर अपने करीब करने की कोशिश करता है |
उसके अपने ही विचारो की एक दुनिया है और वहाँ बसने वाले किरदार भी उसके अपने हैं | सोचने पर वही किरदार  कभी भाई,कभी बेटा तो कभी प्रेमी बन कर उसका पीछा करते हैं |और वो अपने कानों और आंखो को बंद कर बे-हताशा भागती है ...इन सब से अपना पीछा छुड़वाने के लिए  के लिए |उसके  मन में....ईर्ष्या या घृणा के विचार प्रवेश करते ही उसके जीवन से सारी खुशी गायब हो जाती है |उसे लगता है कि उसकी कही बातों को गलतियों का रूप देकर, उसकी ही नज़रो में नीचे गिराने का षड्यंत्र रचा जाता है |जिसे वो चाह कर भी आज तक बादल नहीं सकी है |न्याय की आशा छोड़ कर उसने अपने जीवन से समझोता करना भी सीख लिया है |

रात भी खामोश है, तारे भी शांति से अपनी अपनी जगह पर ही टिके हुए हैं |पर उसके सभी पात्र अपनी अपनी पीड़ा के साथ ही उसके संग जगे हुए हैं |पता नहीं क्यों वो हर बात को सोच-सोच कर खुद को लेकर दुखी क्यों हो जाती है ? उसका मौन सनातन रहस्य की तरह उसे ही क्यों ठगता रहता है ?
ऐसा भी नहीं है कि उसके भीतर अब तक किसी ऋतु ने दस्तक नहीं दी हो |बस फर्क  इतना है कि उसके दरवाजे पर कोई भी ऋतु स्थाई रूप से अपना घर नहीं बसा पाई है....उसे ऐसा ही लगता है |शायद तभी उसे ऐसा लगता है कि सबको सम्मान देने की भावना ही उसे सबसे ज्यादा दुख पहुँचती है |

उसने कभी अपने रिश्ते या बाहर के रिश्तो में दिल से फर्क  नहीं किया फिर क्यों उसे बार बार इस बात का अहसास करवाया जाता रहा है कि ''वो औरत है''....उसे अपनी मर्यादा में रहना ही होगा |
शादी के इतने साल अपनी जाइंट फॅमिली को देने के बाद भी  ''वो'' आज तक ये नहीं समझ पा रही कि एक छोटी सी लड़ाई ने उसे पति की गाली-गलौच और काटाक्ष भरी बातों में एक माँ और एक पत्नी से सीधे ''ये औरत'' (बदचलन)कैसे  बना दिया ????

अंजु(अनु)चौधरी 

Saturday, January 4, 2014

काव्य संग्रह ...ऐ री सखी के लिए ....एक चिट्ठी दीदी चित्रा मुद्गल जी की

 




किसी भी लेखक के लिए वो पल सबसे बड़ा और यादगार होता है जब कोई उसकी कविता या संग्रह की तारीफ करे और ये पल ओर भी यादगार बन जाते हैं जब वो शक्स खुद फोन करके आप से आपका पता मांगे ....ये कहते हुए कि संग्रह को लेकर एक पत्र भेजना है |
ऐसे ही पल मेरी जिंदगी में भी आए जब सर्दी के दिनों में सुबह के वक़्त दीदी चित्रा मुद्गल जी का,मुझे फोन आया और मुझ मेरी कविताओं के लिए प्रोत्साहित करते हुए.... घर का पता लिया ताकि वो ऐ री सखी की एक छोटी सी समीक्षा मुझे मेरे पते पर अपने हाथ  से लिख कर भेज सकें |  आभार दीदी चित्रा मुद्गल जी .....



ऐ-री-सखी,पगडंडियाँ और अरुणिमा का विमोचन के पल ...........
10.02.2013 को इसके लोकार्पण के अवसर पर वरिष्ठ कथाकार श्रीमति चित्रा मुदगल, श्री विजय किशोर मानव, कवि व पूर्व संपादक "कादंबनी", श्री बलराम, कथाकार व संपादक, लोकायत, श्री विजय राय, कवि व प्रधान संपादक, लमही एवं श्री ओम निश्चल, कवि-आलोचक पधारे ...


काव्य संग्रह .......ऐ री सखी की एक कविता



री सखी……

ऐ-री-सखी सुन
पहले हम बातें किया करते थी 
अपने मन की
अपने बचपन की
अपने सपनों की
सपनों के राजकुमार की 

 ऐ री सखी
फिर वक्त बदला
हम दोनों अपनी अपनी दुनिया में
चली आई ,
नए बंधनों में बंध कर
उन संग प्रीत की डोरी बाँध
 
फिर हम बातें  करने लगी
ससुराल की 
कुछ सास की
कुछ जेठानी,कुछ देवरानी की
कुछ चाची तो कुछ मामी की
भूली बिसरी यादों की
हमारी  बातों के घेरे में 
सब आते थे
और शिकायतों का पुलंदा
हमेशा खुल जाता था |

कितना बचपना था ना
कैसी मूर्ख थी हम दोनों
जो अपनों को ही मुद्दा बना दिया करती थी |
.
सखी 
फिर वक्त बदला
तुम अकली हों गई 
इस दुनिया की भीड़ में
और मैं मन ही मन तड़प के रह गई
खुद से एक लड़ाई लड़ने के लिए  

हाँ मानती हूँ मैं कि
तेरा और मेरा ये अकेलापन
अलग अलग हैं
तू अकेली कर दी गयी 
ईश्वर की तरफ से
और मैं अकेली हूँ,शैया पर
अपनों की वजह से  
अपनी अधूरी ख्याइशों के संग 
कुछ नई तो कुछ पुरानी भी 
थम गई अब तो 
अपनी जवानी भी.... 

री सखी 
 मैं तुझे देखती रही
तडपे हुए,नम आँखों से
रात की तन्हाईयों में
तुम बहुत अकेली थी, 
मन और तन से
और मैं बेबस थी 
अपनीऔर तेरी यादों के 
के आँसूं एक साथ पीने के लिए |

सखी 
तुम ठीक कहती थी कि
वक्त बदलता हैं ....क्यों कि
अपने ही परिवार को हमने देखा है 
खुद से दूर होते हुए
भाई  भाभी को बदलते हुए
पापा के बिना 
अब भाई का घर भी 
मायका नहीं लगता हैं
माँ के रहते भी
वो ममता अब नहीं बरसती |

हर कोई अपने में मस्त सा लगता हैं
सबकी आँखों में इतने गहरे
सवाल क्यों नज़र आते हैं ?
जैसे वो  आँखों से तोलना चाहते हैं
हमारे ही वजूद को
राखी का पवित्र बंधन
अब बहुत प्रेक्टिकल सा लगता है |

ऐ री सखी
अपने पिहिर में वो 
कच्चा आँगन भी
कितने सुख की छाँव देता था 
अब देखो ना
वक्त ने हमको  सयाना कर दिया 
वक्त फिर बदला
तभी तो 
हमने रिश्तों ने नए आयाम तय किए हैं


हम अब सही मायनों में
अपनों के लिए 
जीना सीख गई हैं और
ये समझने लगी हैं तभी हम
बाहरी दुनिया से बचने लगीं हैं

बाहरी दुनिया जो ..देखती हैं
बना देती है तमाशा  
हमारी बातों का  
बनाती हैं सच्ची झूठी बातें 
घर के पवित्र रिश्तों का |

बाहरी दुनिया 
जो आज भी नारी देह को 
खिलौना मात्र समझती हैं ..
कि हर कोई अपनी बातों और 
आँखों से उसके तोलता हैं
उनके लिए उम्र की ना,कोई सीमा हैं
 मर्यादा की ना कोई परिभाषा 
अपने घर के ये शरीफ और
बाहर,हर हैवानियत से गुज़र जाने को अमादा हैं
यहाँ दिन सुलगती आग तो
राते अंगारों की सेज़ हैं |

ऐ  री सखी
चल आ ना,
लौट चले हम
अपनी ही दुनिया में
जहाँ मैं हूँ और तुम  हों
और हमारी ही बाते हों
जो हम संग संग किया करती थी
सुबह हों या शाम हों
बस हमारी अपनी ही 
बातें हुआ करती थी
एक दुनिया थी 
जिस में हम दोनों 
खुद में खो कर जिया करती थी|

चल आ ना  ...
आज हम फिर से
अपने अतीत में चलते हैं
खुद के संग पल बिताने को
और जिंदगी के कुछ 
भले-बिसरे गीत गुनगुनाने को |
   
अंजु(अनु)